क्या आज का मानव सच में मजबूर है ???
अज्ञानता व ऐश्नाओं के वशीभूत हो मानव
भटक रहा है चंद चांदी के चमकते सिक्कों की तलाश में,
छीन ली है जिसने उससे
उसका सुकून और उसकी मानवता !
सुकून और मानवता विहीन मानव
क्या मानव रह गया है ?
चेतनाशून्य और आत्मविस्मृत मानव !!
अपनी इस अवचेतन अवस्था में वह
दास नहीं तो क्या ??
विद्रोह !
विद्रोह तो वह करता है जो चैतन्य होता है,
धिक्कारती हो जिसे उसकी आत्मा ?
परन्तु
आत्मविस्मृति के दौर से गुजरने वाला मानव
और
उससे निर्मित समाज
क्या कभी विद्रोह या आन्दोलन कर पायेगा ??
आखिर
इसकी जड़ में क्या है ?
जानना होगा जड़ को?
समझना पड़ेगा मूल को?
कहीं इन सबके मूल में भूख तो नहीं ?
यह बात दीगर है कि
भूख की जाति क्या है ?
जाति !!
सुना था मानव की जाति के बारे में,
परन्तु ये भूख की भी जाति होने लगी क्या ??
हाँ
भूख की भी जाति होती है!
जिनकी भूख दो रोटी की होती है
वह जवान होती है कठिन उपवासों के बीच पलकर
और
देखती हैं आँखें फाड़ फाड़कर.
परन्तु
जिनकी भूख आकाश कुसुम की होती है,
धरती पर स्वर्ग की होती है
वह परवान चढ़ती है वातानुकूलित शीश महलों में,
देखती हैं आँखे तरेर कर
और रचती हैं कुचक्र
दो रोटी के भूख वालों की जिंदगी को निगलने का.
भूख के सताए लोगों ने
ओढ़ ली है चादर अज्ञानता का, मजबूरी का
और
ओढ़कर चैतन्य शून्य हो गए से लगते हैं.
सच क्या है यह तो वही जाने
जो अज्ञानी होने का नाटक कर रहे हैं,
अवचेतन होने का ढोंग कर रहे हैं ?